जब थाकुर-पंडित बहुमत खुद को श्रेष्ठ समझकर OBC/SC/ST को 'नीच जाति' कहता है
जातिवाद की सच्चाई और समाज पर इसके गहरे घावों का अकाट्य विश्लेषण
जातिवाद: भारत की रक्तरंजित विरासत
भारतीय समाज की नब्ज पर हाथ रखें तो धड़कन के बजाय जाति का स्पंदन सुनाई देता है। जब उच्च जाति के थाकुर-पंडित समुदाय के लोग स्वयं को 'श्रेष्ठ' मानकर OBC, SC, ST समुदायों को 'नीच जाति' कहते हैं, तो यह केवल शब्दों का अपमान नहीं बल्कि सदियों पुरानी विषमताओं को पोषित करने का कार्य है। यह लेख उसी सामाजिक कैंसर की पड़ताल करता है जो हमारे राष्ट्रीय शरीर को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा है।
डॉ. भीमराव आंबेडकर का कथन: "जाति कोई भौतिक वस्तु नहीं जिसे ईंट या पत्थर से तोड़ा जा सके। जाति मन की अवस्था है, जिसे उखाड़ने के लिए मानसिक क्रांति की आवश्यकता है।"
जाति व्यवस्था की ऐतिहासिक जड़ें
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति प्राचीन वैदिक काल में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से हुई। कालांतर में यह सामाजिक संरचना कर्म पर आधारित न रहकर जन्म के आधार पर कठोर रूप धारण कर गई। मनुस्मृति (200 ईसा पूर्व) ने इस व्यवस्था को धार्मिक स्वीकृति प्रदान करके शूद्रों और अतिशूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को वैध ठहराया। मध्यकाल में भक्ति आंदोलनों ने इस पर प्रहार किया, परंतु ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने जाति को प्रशासनिक उपकरण बनाकर इसे और सुदृढ़ किया।
'नीच जाति' शब्द का सांस्कृतिक हिंसक इतिहास
'नीच जाति' शब्द केवल भाषाई अपमान नहीं है बल्कि सामाजिक हिंसा का हथियार है। इसके माध्यम से:
- मनुष्यता को जन्माधारित पदानुक्रम में बांटा जाता है
- सदियों के शोषण को वैध ठहराया जाता है
- सामाजिक बहिष्करण और आर्थिक वंचना को स्थायी बनाया जाता है
- मनोवैज्ञानिक हीनता का भाव पैदा किया जाता है
थाकुर-पंडित वर्ग: श्रेष्ठता के भ्रम का विज्ञान
सामाजिक पिरामिड में शीर्ष स्थिति
ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों से संबंधित ये समूह परंपरागत रूप से धार्मिक और राजनीतिक शक्ति के केंद्र रहे हैं। इनके पास वंशानुगत विशेषाधिकारों का ऐतिहासिक भंडार है जिसे वे 'श्रेष्ठता' का प्रमाण मानते हैं।
श्रेष्ठता के भ्रम के तीन स्तंभ
1. धार्मिक वैधता (पुरोहिती प्राधिकार)
2. आर्थिक नियंत्रण (जमींदारी व्यवस्था)
3. शैक्षिक एकाधिकार (विद्या पर नियंत्रण)
आधुनिक भारत में विशेषाधिकारों का रूपांतरण
स्वतंत्रता के बाद संवैधानिक समानता के युग में भी यह वर्ग अपने विशेषाधिकारों को नए रूपों में सुरक्षित रखने में सफल रहा। आज यह विशेषाधिकार इन रूपों में मौजूद है:
- शैक्षिक संस्थानों में अप्रतिबंधित पहुंच
- निजी क्षेत्र में नेटवर्किंग के माध्यम से रोजगार के अवसर
- सांस्कृतिक पूंजी का अकूत भंडार
- मीडिया और बौद्धिक क्षेत्रों में प्रभुत्व
प्रख्यात समाजशास्त्री सुरिंदर एस जोधका का मानना है: "उच्च जातियों का 'मेरिट' का नैरेटिव वास्तव में उनके ऐतिहासिक विशेषाधिकारों को छिपाने का मास्क है। जब तक उनकी सामाजिक-आर्थिक पूंजी को 'मेरिट' के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहेगा, तब तक जातिगत असमानता बनी रहेगी।"
OBC/SC/ST समुदायों पर प्रहार: बहुआयामी भेदभाव
सामाजिक अपमान का दैनिक युद्ध
2018 के NCRB आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर 15 मिनट में जातिगत अपराध का एक मामला दर्ज होता है। परंतु वास्तविकता इससे कहीं अधिक भयावह है क्योंकि अधिकांश मामले कभी रिपोर्ट ही नहीं होते। दैनिक जीवन में होने वाला भेदभाव अदृश्य घाव छोड़ता है:
- ग्रामीण क्षेत्रों में अलग कुएं और मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध
- शहरी क्षेत्रों में किराए पर मकान न देना
- विवाह समारोहों में अलग बैठने की व्यवस्था
- घरों में अलग बर्तनों का प्रयोग
आर्थिक वंचना: व्यवस्थित लूट का इतिहास
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSSO) के अनुसार, SC/ST परिवारों की औसत मासिक आय राष्ट्रीय औसत से 30% कम है। इस आर्थिक खाई के मूल में है:
- ऐतिहासिक रूप से जमीन के अधिकार से वंचित रखना
- पारंपरिक रोजगारों को हेय दृष्टि से देखना
- बैंकिंग प्रणाली तक सीमित पहुंच
- बाजारों में भेदभावपूर्ण व्यवहार
शैक्षिक अंतराल
UDISE+ रिपोर्ट 2021-22 के अनुसार:
उच्च शिक्षा में SC छात्रों का नामांकन: 14.9%
ST छात्रों का नामांकन: 5.6%
(जबकि जनसंख्या में इनका हिस्सा क्रमशः 16.6% और 8.6% है)
रोजगार में भेदभाव
2019 का एक अध्ययन दर्शाता है कि समान योग्यता वाले आवेदकों में:
उच्च जाति के नाम वालों को बुलाने की दर
SC/ST नाम वालों से 36% अधिक थी
जातिवाद के खिलाफ कानूनी ढांचा: सुरक्षा या भ्रम?
संवैधानिक प्रावधानों की जमीनी हकीकत
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 17 और 46 जातिगत भेदभाव के विरुद्ध मजबूत सुरक्षा प्रदान करते हैं। परंतु इन प्रावधानों और जमीनी हकीकत में गहरी खाई है:
- अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता उन्मूलन) के उल्लंघन के 95% मामलों में सजा नहीं होती
- SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत केवल 32% मामलों में चार्जशीट दाखिल हो पाती है
- पुलिस स्टेशनों में भेदभावपूर्ण व्यवहार शिकायत दर्ज करने में बाधा बनता है
आरक्षण नीति: समानता का साधन या विवाद का केंद्र?
उच्च जातियों द्वारा आरक्षण का विरोध वास्तव में विशेषाधिकारों के खोने का डर है। परंतु तथ्य यह है कि:
- केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में 40% OBC आरक्षण सीटें खाली रह जाती हैं
- कई राज्यों में SC/ST को जमीन आवंटन का प्रावधान अधूरा पड़ा है
- उच्च जातियों के पास अभी भी 70% से अधिक निजी क्षेत्र के नौकरियों पर नियंत्रण है
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: "आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। यह ऐतिहासिक भेदभाव से उत्पन्न सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का उपचार है।" (इंद्र साहनी मामला, 1992)
सामाजिक प्रभाव: जातिवाद के विषैले फल
मनोवैज्ञानिक आघात की पीढ़ीगत विरासत
मनोचिकित्सकों के अनुसार, जातिगत भेदभाव के शिकार लोगों में PTSD (पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) के लक्षण पाए जाते हैं। इसके प्रमुख प्रभाव:
- आत्म-मूल्य की भावना का क्षरण
- सामाजिक अंतःक्रिया में स्थायी भय
- शैक्षिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव
- स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में कमी
राष्ट्रीय विकास में बाधा
विश्व बैंक के अनुसार जातिगत भेदभाव भारत के GDP विकास को प्रतिवर्ष 0.9% से 1.5% तक कम करता है। कारण:
- मानव पूंजी का अपूर्ण उपयोग
- प्रतिभा पलायन में वृद्धि
- सामाजिक अशांति से आर्थिक अस्थिरता
- नवाचार और उद्यमशीलता पर प्रतिबंध
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने चेतावनी दी है: "भारत का सामाजिक विभाजन उसकी आर्थिक प्रगति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जब तक जाति व्यवस्था बनी रहेगी, भारत अपनी पूर्ण आर्थिक क्षमता कभी हासिल नहीं कर पाएगा।"
जातिवाद के विरुद्ध युद्ध: समाधान के मार्ग
शिक्षा क्रांति: दीर्घकालिक उपचार
- पाठ्यक्रमों में जाति के ऐतिहासिक शोषण को शामिल करना
- बचपन से ही सामूहिक गतिविधियों के माध्यम से समरसता विकसित करना
- शैक्षिक संस्थानों में विविधता कोटा सुनिश्चित करना
- शिक्षक प्रशिक्षण में संवेदीकरण कार्यक्रम अनिवार्य करना
कानूनी सुधार: न्याय की गारंटी
- विशेष जाति अत्याचार न्यायालयों की स्थापना
- ऑनलाइन FIR सुविधा का विस्तार
- साक्ष्य नियमों में संशोधन
- पीड़ितों को त्वरित मुआवजा सुनिश्चित करना
सामाजिक आंदोलन: जनचेतना का निर्माण
- अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन
- सामूहिक सांस्कृतिक कार्यक्रम
- मीडिया में विविध प्रतिनिधित्व
- धार्मिक नेताओं द्वारा जातिवाद की निंदा
आर्थिक सशक्तिकरण: समानता की बुनियाद
व्यवसायिक प्रशिक्षण, स्टार्टअप फंडिंग, कृषि तकनीकी ज्ञान और बाजार पहुंच जैसे उपायों के माध्यम से आर्थिक स्वावलंबन जातिगत पदानुक्रम को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सरकारी योजनाओं के साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी इस दिशा में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है।
निष्कर्ष: नए भारत के लिए जातिमुक्ति का संकल्प
जब थाकुर-पंडित समुदाय का व्यक्ति स्वयं को 'श्रेष्ठ' और दूसरों को 'नीच' कहता है, तो वह न केवल संवैधानिक मूल्यों का अपमान करता है बल्कि राष्ट्र की एकता को भी खंडित करता है। जातिवाद के विरुद्ध यह युद्ध केवल वंचित समुदायों का नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय का नैतिक दायित्व है।
संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर का चेतावनी: "हमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक लोकतंत्र भी स्थापित करना होगा। यदि हमने सामाजिक असमानता को बनाए रखा, तो राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।"
नए भारत की नींव तभी मजबूत होगी जब हम जाति के प्रपंच से ऊपर उठकर मानवीय गरिमा और समानता के सिद्धांतों पर खरा उतरें। यह परिवर्तन कानूनों से नहीं, बल्कि हृदय परिवर्तन से आएगा - उस मानसिक क्रांति से जिसकी कल्पना डॉ. आंबेडकर ने की थी। जाति के जंजाल को तोड़कर ही भारत अपनी वास्तविक महाशक्ति बनने की क्षमता को प्राप्त कर सकेगा।
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